सामाजिक असमानता पर सन्त कबीर कहते है कि:-जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान। मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥


आइये, जुड़िये कबीर से...

तथागत बुद्ध के सामाजिक दर्शन से भारत देश में मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई थी। बौद्ध दर्शन के कारण ही भारत दुनियां में शुमार हुआ। एक सत्ता की धर्म व संस्कृति सीढियां होती है। सम्राट अशोक ने जब बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अपनाया था तब भारत की सीमाएं वर्तमान श्रीलंका, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान तक थी। बौद्ध धर्म की श्रमण संस्कृति ने भारत की ख्याति जापान, चीन, थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया, मलेशिया आदि देशों तक फैला दी। कलिंग युद्ध के बाद अशोक में धम्म को अपना दिया। धम्म प्रचारकों के माध्यम से उन्होंने समता,करुणा, मैत्री की धारणा को विस्तृत किया। श्रमण संस्कृति के कारण ही मूलनिवासी समाज को अपने स्वाभिमान को पहचान हुई। वैदिककाल में स्थापित चतुर्वर्णीय व्यवस्था मौर्यकालीन भारत मे कमजोर पड़ गयी थी। जब पुष्यमित्र शुंग द्वारा अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या कर दी गयी। तब से एक बार फिर सामाजिक असमानता जोरों से पनपने लग गयी। सत्ताधीशों व उनके विलक्षणविदों द्वारा निम्न कौम को जातियों में विभाजित कर उनकी एकता को विभेद कर दिया। इनको नियंत्रण करने के लिये अनेक धर्मग्रंथों को काल्पनिक रचनायें की गई। इन्हीं धर्मग्रंथों की धारणाओं के कारण भारत में भाग्यवाद,पुनर्जन्म, अंधविश्वास, पाखण्डवाद, मूर्तिपूजा, आस्था,आत्मा,परमात्मा का प्रादुर्भाव हुआ। मानसिकता की यह गुलामी मनुष्यता की पहचान को जकड़ के रख दिया था।

सन्त कबीर के जन्म के समय व पहले भारत पर मुस्लिम शासकों का आधिपत्य था। धर्मशास्त्र से पीड़ित समाज का पिछला तबका धर्मान्तरण के बीच थपेड़े खा रहा था। इस्लामिक कट्टरपंथी का विरोध सूफी परम्परा कर रही थी। अब धर्म व मानव धर्म के बीच का सँघर्ष प्रारम्भ हो चुका था। फायदा विदेशी शासकों को हो रहा था। इन्हीं सँघर्षो के बीच कबीर का जन्म हुआ। सन्त कबीर में दोनों संस्कृतियों को परख कर अपने अनुभव एवं अनुभूति से मानवीय मूल्यों पर आधारित मध्यम मार्ग अपना लिया। उन्होंने तथागत बुद्ध के पंचशील सिद्धान्त को ही मानव कल्यार्थ का मार्ग बताया। कबीर अपने दोहों के माध्यम से जिस प्रकार हमें समय समय पर सीखा के चले जाते है। उसे अध्ययन करके ऐसा लगता है कि हमें समझाने वाला कबीर फिर से चाहिए। जुड़िए कबीर से, क्योंकि कबीर आजीवन हमें जोड़ते रहे। भक्तिकाल के ज्ञानमार्गी के निर्गुणी सर्वोच्च कवि थे। उनकी बीजक के संकलन में साखी, सबद, रमैनी भक्तिकाल में बराबर रूप से परिलक्षित हुई थी।

मसि कागद छूओ नीं, कलम गहि नहिं हाथ।

एक निरक्षर होते हुए भी उनके ज्ञान, अनुभव और कथनशैली तो बड़े बड़े गुरुओं को नतमस्तक कर देती है। उनकी भाषा अनगढ़, सधुक्कड़ी और पंचमेल खीचड़ी कही जाती है। इसमें मार्मिकता, सहजता व निर्भीकता है।

कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।

हर युग मे कबीर होने चाहिए। दुनियां को रीत है जिनके ज्यादा अनुयायी होंगे, उतने ही उनके विरोधी होंगे। सत्य के मार्ग पर चलने के लिये किसी से अति दोस्ती व न किसी से अति दुश्मनी करना ठीक नहीं है। कबीर का यह दोहा खुद को सुधारने के लिये बहुत कुछ सिखाता है। संकीर्ण विचारधारा को त्याग व आदर्श जीवन जीने का उनके उपदेश बहुत सार्थक है। 

सामाजिक असमानता पर सन्त कबीर कहते है कि:-

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

संत कबीर सरल शब्दों में कह रहे हैं कि सज्जन पुरुष की जात पर ध्यान न देते हुए उसके ज्ञान को आत्मसात करने की कोशिश करो, किसी के ज्ञान तथा उसकी जात में ज़मीन - आसमान का फ़र्क है, जिस प्रकार महत्व तो तलवार का होता है क्योंकि धार केवल उसी में होती है, म्यान तो केवल एक खोल है, बाह्य आवरण मात्र है, जिसका धार से कोई लेना देना नहीं। ठीक इसी तरह मूल्य तो केवल ज्ञान का है, और सज्जन पुरुष की पहचान भी यही है, जाति तो बाहरी विधान है, जिसके होने अथवा न होने पर भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कबीर जी का यह दोहा आज के अन्दर्भ में कितना सटीक धर्म अथवा जात कोई भी क्यों न हो, महत्त्व केवल ज्ञान का होता है, इस बात से अनभिज्ञ हम आपसी वाद-विवाद में लें, कैसे-कैसे पचड़ों में पड़े रहते हैं। आज संत कबीर की वाणी तथा सोच की कितनी ज़रुरत है।

तत्कालीन समाज में व्यापत पांखड व अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिये सन्त कबीर कहते है कि:-

पाथर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहाड़।
 ता ते या चाकी भली, पूज खाए संसार।।

अगर पत्थर पूजने से किसी को ईश्वरीय दर्शन सुलभ होता है तो मैं पहाड़ को पूजने ले लिये तैयार हूँ। इससे अच्छा तो घर की धान पीसने की चक्की की पूजा कीजिये जिसका पीसा हुआ धान सभी लोग खाते है। कबीर ने ईश्वर को अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने ईश्वर के विभिन्न रूप मूर्ति,मंदिर,चमत्कार के महत्व को अस्वीकार कर होने घट घट में होने का बताया है।

मो को कहाँ ढूँढे बन्दे मैं तो तेरे पास में। 
ना मैं देवन, ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में॥ 

मंदिर मस्जिद जैसे पूजा स्थलों को नकारते हुए कबीर अपने अन्दर झाँकने को कहते हैं , वे कहते हैं कब तक हम इन बाह्य नेत्रों का सहारा लेते यहाँ से वहाँ फिरते रहेंगे ? यदि तुम उस परम पिता परमात्मा का अनुभव करना ही चाहते हो तो मन की आँखों को खोलने का प्रयास करो, कबीर बाहरी ढोंग के सख्त ख़िलाफ़ थे, उनके अनुसार परमात्मा का निवास स्थान हर प्राणी के भीतर है, इसीलिए उसे बाहर खोजना व्यर्थ है। कबीर के राम निराकार, निर्गुण, एकेश्वरवादी थे। उनके राम सर्वत्र व्याप्त थे। कण कण में राम थे। आमजन के आपस के अभिवादन में उनके राम है।। कबीर का राम बहता नदी का जल है। नदी किसी के साथ भेद नहीं करती है। केवल नदी से पानी लेने वाले बर्तनों में भेद है। सन्त कबीर कहते है कि-

लूट सके तो लूट लें,राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताएगा,प्राण जाहि जब छूट॥

लेकिन वर्तमान में तो यह दोहा सच में मानवीय मूल्यों को दरकिनार करके स्वार्थ व धर्मशास्त्र की सिद्धि प्राप्त करने के लिये कबीर के राम राम नाम की लूट से बिल्कुल विपरीत सा हो गया है। राम नाम की लूट से कैसे मिनटों में जमीन का मूल्य ग्रोथ कर जाता है। और कबीर का घट घट का राम देखता ही रह जाता है। 

कबीर इन्हीं बीच सामाजिक समानता पर बल देते हुए समाजवाद की बात करते है कि-

साईं इतना दीजिये, जामें कुटुम्ब समायें।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाएं।।

यह होता है अपरिग्रह, सन्त कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिससे बस मेरा गुजारा चल जाये, मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ। लेकिन अब तो साईं इतना दीजिये जामें मेरा पेट समाएं, मैं किसी का न रहूँ, मेरा न कोई खाएं।

समाजवाद/बौद्धिकवाद का विकास करने के लिये कबीर व्यवहारिक शिक्षा पर बल देते हुए कहते है कि-

पढ़ा सुना सीखा सभी, मिटा ना संशय शूल।
कहे कबीर कैसो कहू, यह सब दुःख का मूल।।

जीवन भर पढ़-लिख कर शिक्षा प्राप्त करने का क्या लाभ जब मन की उलझन ज्यों की त्यों बनी पड़ी है कबीरदास सांसारिकता तथा सतही शिक्षा पर कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं कि अब मैं और क्या कहूँ पढ़ाई-लिखाई भी मन की जिस उलझन को सुलझा नहीं पाए, वही तो सम्पूर्ण दुखों की जड़ है.कवि समझाना चाहते हैं कि मन की शंकाओं को दूर करने की ताकत यदि सांसारिक ज्ञान में नहीं है तो वह ज्ञान व्यर्थ है। यही शंकाएँ और उनसे जुड़ी समस्याएँ ही तो समस्त दुखों का मूल है, उन्हें दूर किए बिना दुःख को मिटा पाना असंभव है। बाह्य शिक्षा- पद्धति आतंरिक उलझन को सुलझाए भी तो कैसे। खुद को सन्त कबीर का अनुयायी मानकर कबीर सिंह मूवी की तरह किसी से जड़त्व प्रेम करके समाज को विकसित करने की कल्पना साधते हो, ऐसे में आपका न प्रेम रहेगा, न शिक्षा रहेगी, न समाज का व्यवहार। सन्त कबीर का दर्शन हमेशा विवेकसम्मत और अनुभव व अनुभूति की शिक्षा पर बल देता है। 

इसलिये सन्त कबीर मानव को शीलगुणों की पहचान कराते हुए कहते है कि:-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।

समय बहुत ही बलवान है, हर काम का एक वक़्त होता है। उससे पहले या बाद में वह काम हो ही नहीं सकता। यही प्रकृति का नियम है। ठीक इसी तरह हमारे जीवन में भी हर काम का वक़्त तय है। मेहनत के पश्चात थोडा धीरज रखने से सब कुछ सही होता जाता है।

खुद के अंदर के कबीर की पहचान कीजिए। उन्हें प्रखर कीजिये। 

सन्त कबीर की जयंती पर उन्हें कोटिशः नमन।

#KabirPrakatDiwas 
#SantKabirJayanti 
#कबीर 

John Jaipal की क़लम से ✍️

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